व्यक्ति और समाज
मानव-सभ्यता विकास के मुगालते में कहीं विनाश की ओर तो नहीं बढ़ रही, कोरोना जैसे शुद्ध मानवजनित संकट ने एक बार फिर यह सवाल प्रासंगिक बना दिया है। मानव-शक्ति की संभावनायें अनंत और अकल्पनीय हैं। इसीलिये किसी व्यक्ति की तरह ही समाज की नियति का आकलन सदैव से एक टेढ़ी खीर रहा है। इस संबंध में केवल कुछ संभावना ही व्यक्त की जा सकती हैं।
देखा जाये तो समाज अपनी प्रेरणाओं और शिक्षाओं के माध्यम से व्यक्ति का चरित्र निर्मित करता है; और पुनः उन्हीं व्यक्तियों से मिलकर हमारा समाज निर्मित होता है। प्रश्न है कि क्या इस सृजन-चक्र को किसी आदर्श एवं वांछित स्थिति में लाया जा सकता है, कि जीवन शांति, सृजन व सौंदर्य का प्रतिरूप बन सके! यदि हां, तो कैसे!
जैसा कि ज़ाहिर है, हमारे व्यक्तित्व व चरित्र का गठन हमारे आसपास के परिवेश यानी समाज पर ही निर्भर करता है। हममें से प्रत्येक को जन्मजात रूप से कुछ शक्तियां अर्थात् क्षमतायें, और तद्नुरूप स्वतंत्रतायें भी प्राप्त होती हैं। पर हम उनका उपयोग कैसे करते हैं, यानी उन प्रकृति-प्रदत्त शक्तियों के प्रयोग में अपनी सोच व स्वतंत्रता का नियमन कैसे करते हैं, यह बहुत कुछ हमारे चारित्रिक गठन पर निर्भर करता है। जिसके अनुसार हम उनके सृजन व सौंदर्य, अथवा विध्वंस और विनष्टीकरण हेतु अनुप्रयोग को स्वतंत्र होते हैं। और इस तरह जहां एक ओर हम खुद को गढ़ते हैं, वहीं दूसरी तरफ इस समाज को भी। साथ ही इन शक्तियों को भी पुष्ट या फिर विनष्ट करते रहते हैं।
क्योंकि हमारे प्रत्येक कर्म से आसपास का परिवेश और यह समाज निःसंदेह प्रभावित होता रहता है। और वस्तुतः तो समाज ही वह शक्ति है जिससे प्रतिक्रिया करते हुये हमारा व्यक्तित्व व चरित्र उभरता है। समाज हम सबसे, हम सबकी भूमिकाओं और व्यक्तित्व से मिलकर बना होता है। हमारे चरित्रों का समुच्चय ही यह समाज है। जानकारों का मानना है कि हम अंततः वही हो जाते हैं जो हम खुद को मानते हैं। पर यहां दिक्कत यह आ जाती है कि हम अक्सर वही खुद को मानने लगते हैं, जैसा कि समाज हमें समझता है। और तब यह समाज हमारे लिये सहयोगी होने की बजाय एक बंधन ही हो जाता है।
यहां चरित्र को हम प्रवृत्ति के अर्थों में ले सकते हैं। चरित्र का मतलब साधारणतया हमारे चाल-चलन और व्यवहार की सहज प्रवृत्तियों से ही लगाया जाता है। अर्थात् किसी उद्दीपन अथवा परिस्थितियों के प्रति संवेदन की हमारी सामान्य प्रवृत्ति, उसके प्रति प्रतिक्रिया की हमारी सहज अंतर्प्रेरणा से ही हमारे सामाजिक चरित्र का निर्धारण होता है। चुनांचे, यह बहुत कुछ जीवन के प्रति हमारी समझ और जीवन के लक्ष्यों पर पर निर्भर है। जीवन और संसार को मात्र उपभोग के नज़रिये से देखने वाले का, और इसमें कुछ योगदान या प्रतिदान का नज़रिया रखने वाले का व्यक्तित्व व चरित्र एक-दूसरे से विपरीत होना इसीलिये स्वाभाविक ही है। और ये नज़रिया हमें समाज के माध्यम से मिली औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षाओं व संस्कारों से ही विकसित होता है; इसीलिये हमारी शिक्षण संस्थाओं को इस ओर विशेष ध्यान देना अपरिहार्य हो जाता है। ताकि हमारी शिक्षा केवल शक्ति-अर्जन करने की शिक्षा-व्यवस्था ही न रह जाये। जैसा कि फिलहाल साफ नज़र आता है।
स्पष्ट है कि चरित्र हमारा वह स्वभाव है जिसके अनुसार हम अपने जीवन की आवश्यकतायें पूरी करने का प्रयत्न करते हैं। कि ये आवश्यकतायें मूलतः शारीरिक होती हैं, जो जीवन की क्रियाओं को अपनी संतुष्टि हेतु अभिप्रेरित करती रहती हैं। किसी प्रत्याशित अनुभव में अभाव की कल्पना से भाव, अर्थात् भावनात्मक या मानसिक आवश्यकतायें व्युत्पन्न होती हैं। ज़ाहिर है इसके लिये संबंधित पूर्वानुभव या ज्ञान अपरिहार्य है। जिसका अंकुरण समाज से प्राप्त शिक्षादि संस्कारों से होता है। सामान्यतः, जिसकी सहायता अथवा प्रेरणा से अभिप्रेरित होकर हम अपनी किसी आवश्यकता पर विजय पाने का प्रयत्न करते हैं। और इसी क्रम में अपना, व अपने समाज का भी चरित्र गढ़ते रहते हैं।
गौरतलब है कि जैसे समाज अपना चरित्र मुख्यतः अपनी शिक्षाओं व परंपराओं से निर्मित करता है; वैसे ही व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में उसकी अपनी ग्रहणशीलता भी अहम होती है। जैसे समाज की शिक्षा-व्यवस्था समाज को पुष्ट करती है; वैसे ही हमारा आहार व विचार हमारे शरीर और मन को। साफ है कि हमारी व्यक्तिगत शुचिता का सीधा संबंध हमारे आहार व विचार की प्रकृति से है। हालांकि आज के ‘फास्ट-फूड एंड फास्ट-थिंकिंग’ वाले आपाधापी भरे युग में इस तथ्य की काफी अनदेखी हो रही है। जबकि आहार की गुणवत्ता का सीधा प्रभाव हमारे व्यक्तित्व व चरित्र के निर्माण पर पड़ता है। जिसमें संतुलन लाकर इंद्रियगत लालसाओं पर नियंत्रण पाना आसान होता है। क्योंकि यह व्यक्ति की ग्रहणशीलता भी तय करती है।
एक व्यक्ति की भूख-प्यास आदि ज़ुरूरतों को यथोचित ढंग से पूरी करके ही उसके चरित्र में संतुलन और स्थिरता की उम्मीद की जा सकती है। क्योंकि किसी का व्यक्तित्व और चरित्र सदैव एक सामाजिक बात है; और व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत आवश्यकतायें पूरी करने के लिये ही समाज से जुड़ता है। और यदि इन्हें पूरी करने की कोई सम्यक् व्यवस्था समाज द्वारा की जाती है तो पथ विचलन की संभावना नगण्य रह जाती है। हालांकि अपनी-अपनी उपलब्ध मान्यताओं के अनुरूप प्रत्येक समाज में ऐसी व्यवस्था दिखती है। आखिर समाज व्यक्ति के लिये ही होता है।
स्पष्ट है कि अपनी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये हम अपनी शक्तियों का प्रयोग जिस स्वतंत्रता के साथ करते हैं, उससे ही हमारा और हमारे इस समाज का निर्माण होता है। चोरी, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, शोषण आदि तथाकथित सभी सामाजिक बुराइयों को इसीलिये एक व्यक्ति के साथ ही पूरे समाज पर एक बदनुमा कलंक के तौर पर देखा जाना चाहिये। क्योंकि यह समाज ऐसे ही कुछ अच्छे-बुरे प्रभावी व्यक्तियों की प्रतिकृति होता है। हम जाने-अनजाने जिनसे प्रभावित होते हैं, उनका अनुकरण करते हैं, और इस तरह अपने समाज को भी निर्मित करते रहते हैं। और जिस तरह हम अपना समाज निर्मित करते हैं, उसी तरह की सहूलियतें अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों के व्यक्तित्व निर्माण हेतु पैदा करते हैं।
भय, आक्रोश, घृणा, प्रेम, सहानुभूति या फिर उपेक्षा आदि की भावनायें किसी चोर, अपराधी, बलात्कारी, हत्यारे या फिर किसी निरीह व पीड़ित के लिये जैसी भी हमारे मन में होंगी, वैसा ही अपने कर्मों और प्रतिसंवेदनाओं के माध्यम से हम अपने परिवेश को प्रभावित करते हैं। और वैसी ही संवेदनायें हम अपने आसपास के वातावरण में संक्रमित करते रहते हैं। ध्यातव्य है कि संवेदना ही किसी भी कृत्य का प्रथम चरण है । जिसके माध्यम से हम जाने-अनजाने समाज के निर्माण में अपना सतत् योगदान करते रहते हैं। सो हमें इसके लिये सदैव सतर्क रहना होगा.