मन की दीप
बहुत समय पहले की बात है, धौलपुर नामक गांव में बाबू राव का एक छोटा सा परिवार रहता था। उसके परिवार में वह, उसकी पत्नी, और उनके दो बच्चे रहते थे। बाबू राव बहुत ही पुराने ख्यालात का इंसान था।
घर में उसे औरतों का काम करना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। बाबू राव पेशे से किसान था। हर सप्ताह वह अपने खेत से सब्जी तोड़ता और उसे शहर ले जाकर बेचता था, परन्तु गांव से शहर तक का सफर बाबू राव के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं था।
रास्ते में कुछ दूर ढ़ेर सारे पत्थर थे और कुछ दूर आगे चलने के बाद हल्की गहरी खाई लेकिन बाबू राव को प्रतिदिन यह जोखिम उठाना पड़ता था क्योंकि इसी से उसके घर की रोजी-रोटी चलती थी। उसका घर इतना अमीर तो ना था, पर जैसे-तैसे कर उसके घर का खर्च निकल जाता था।
एक सवेरे की बात है, जब बाबू राव रोज की तरह अपने खेत से ताजे-ताजे सब्ज़ियाँ लेकर बाजार की तरफ़ जा रहा था तब रास्ते में उसके बैलगाड़ी के अचानक से संतुलन बिगड़ जाने के कारण उसकी बैलगाड़ी लड़खड़ा कर खाई में जा गिरी। जल्दी-जल्दी में उसे पास के वैद्य जी के पास ले जाया गया।
किन्तु उसकी चोट इतनी गहरी थी कि इस दुर्घटना के बाद वो अपने बिस्तर पर से उठने की स्थिति में नहीं रहा।
इतना कुछ होने के बावजूद उसके अक्ल को ठिकाने ना आईं। उसकी पत्नी ने उसे बहुत समझाया कि अब तो आप कुछ भी काम करने के स्थिति में नहीं है, कृपा कर मुझे खेत के सारे काम करने दीजिए ताकि मैं घर के कुछ खर्च निकाल सकूंँ।
इतने बात सुनने के बाद भी उसका जवाब वहीं रहता। ना उसकी सोच ना उसकी जवाब दोनों टस से मस ना होता था। धीरे-धीरे कर समय बीतता गया और परिवार के स्थिति और भी खराब होते चली गई। एक-एक कर उसके सारे खेत बिकते चले गए।
एक समय ऐसा आया कि उसके पास बस गिने चुने ही जमीन बचे थे। बाबू राव के पत्नी ने फिर से उसे समझाने की कोशिश कि उसने कहा – अब तो हमारे सारे खेत भी बिक गए और उनसे आए सारे पैसे भी अब खत्म होने को है, अब तो मुझे कुछ काम करने दो। बाबू राव ने उसे चुप कराते हुए कहा – मेरे दिन कितने भी बुरे क्यों ना चल रहे हो, मैं तुम्हें काम करने की इजाज़त कभी नहीं दूंँगा।
धीरे – धीरे कर फिर से कुछ दिन बीते बाबू राव और उसके परिवार की स्थिति और भी दयनीय हो गई। इस बार उसके बच्चों का नाम गांँव के विद्यालय से हटा दिया गया था। दूसरों बच्चों को स्कूल जाते देख बाबू राव के बच्चे काफी दुखी होते थें। उन्हें भी अन्य बच्चों के तरह विद्यालय जाने का मन करता था।
उन्होंने सोचा क्यों ना एक प्रयास वो लोग अपने तरफ से भी करे। दोनों बच्चे बाबू राव के पास गए और कहा – पिताजी हमारा दाखिला विद्यालय से काट दिया गया, पर हमें भी दूसरों की भांँति स्कूल जाने का मन करता है। कृपया कर मांँ को कुछ काम करने दो ना ताकि वह हमारे स्कूल की फीस भर सके और हम एक बार फिर से पढ़ाई करना शुरू कर दें। बाबू राव ने।
उन्हें झुंझलाते हुए कहा – कुछ दिनों में मैं पूरी तरह स्वस्थ हो जाऊंँगा, फिर मैं तुम लोगों के फीस भर दूंँगा। यह कहते हुए उसने बच्चों को जाने को कहा।
समय बीतता गया, अब दीवाली का समय निकट ही था। बाबू राव की स्वास्थ्य और भी बिगड़ती गई। परिवार की तंगी और भी बढ़ गई थी और दो वक़्त की रोटी खाने के भी कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।
हर साल की तरह दीवाली पर सभी ग्रामवासी के घर जगमग दीप से जल रहे थे पर बाबू राव के घर में अंधकार छाया था। अब बाबू राव पूरे दिन बैठकर अपने बुरे समय के लिए ईश्वर को कोसता रहता था। उसके दिमाग की अंधकार में यह दीप जल ही नहीं रही थी कि अगर वो अपनी पत्नी को काम करने की इजाज़त दे दिए रहता तो शायद उसकी और उसकी घर की स्थिति कुछ और ही होती। दीवाली का दिन आ गया था।
दीपक की जगमगाहट से पूरा गाँव खिल उठा था। उसी दौरान गांव में दीवाली के अवसर पर एक ऋषि गांव में भिक्षा माँगने को आये। सभी घर से भिक्षा लेते हुए वो बाबू राव के घर में पहुंँचे। बाबू राव ने अपनी सारी आपबीती सुनते हुए बाबा से कहा – हमारे घर में बहुत समय से अंधकार ही अंधकार है और यहां दीपक जलने का दूर दूर तक कोई रास्ता नहीं दिख रहा है।
इन सब के लिए ऊपर वाला जिम्मेदार है जिनके कारण हमारे घर में आज अंधकार छाया हुआ है। यह सब बात सुनते हुए बाबा ने कहा – हे वत्स! तुम्हारे आसपास शुरुआत से ही तुम्हारी पत्नी के रूप में इस अंधकार को खत्म करने के लिए दीपक थी। अगर तुम अपनी पत्नी को काम करने देते तो आज तुम्हारे घर में भी रोशनी होती।
अगर वो आज काम करती तो तुम्हारे इलाज कराने को कुछ पैसे रहते घर में, तुम्हारे बच्चों का दाखिला ना कटता और ना ही आज के दिन तुम्हारे घर में इतना अंधेरा रहता। इतना सुनते ही बाबू राव सारी बातें याद करने लगा। उसे अपने और पत्नी की सारे बातें याद आ गई और इतने में उसके दिमाग के सारे ताले खुल गए।
आज तक किए गए सारे गलती का एहसास उसे हो चुका था। इसके साथ ही उसने अपनी भूल के लिए अपनी पत्नी और बच्चों से माफी मांँगी। बाबू राव के घर में दीवाली के दिन भले ही कोई दीपक ना जल रहा था परन्तु उसके मन में जल रहे दीप के सामने वो सब फीके पर गए थे।
इसके बाद बाबू राव की पत्नी खेत में काम करने लगी और फिर तो मानो जैसे उनके भाग्य खुल गए हो। कुछ दिन बाद बाबू राव भी ठीक हो गया और फिर दोनों मिलकर खेत में मेहनत करने लगे और इससे उनके परिवार की दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की होने लगा और आने वाले सारे दीपावली को बड़े धूम-धाम से मनाया।
कभी-कभी हम अपनी बाहरी दुनिया के रोशनी पर इतना ध्यान देते है कि अपनी मन के अंदर के अंधकार को देख ही नहीं पाते हैं। तो आओ इस दीवाली एक दीपक अपनी मन में जलाये और अपने अंदर के सारी बुराइयों को भगाए।