कुख्यात विकास दुबे को पकड़ने गये आठ पुलिस वालों की शहादत से पूरे सूबे की व्यवस्था थर्रा उठी है। हालाँकि इसके साथ ही हिस्ट्रीशीटर के दो गुर्गे, जिसमें उसका एक रिश्तेदार भी है, पुलिस ने मार गिराये। पर घटना के चौबीस घंटे बीत जाने तक अभी मुख्य अभियुक्त पुलिस की पहुंच से बाहर है, इससे लोगों के आक्रोश को धार ही मिली है।
इस मामले में हमारी व्यवस्था पर उठने वाला सबसे पहला सवाल तो यही है, कि आख़िर इतना बड़ा मिशन फ़ेल कैसे हुआ! पुलिस और प्रशासन के पास इतने इंतेज़ामात और सहूलियतें होती हैं कि वे एक ‘फुलप्रूफ़’ योजना बना सकें। पर यहाँ तो अभियुक्त सारी व्यवस्था से बढ़कर शातिर निकला, जो अब भी आंखों में धूल झोंकने में कामयाब बना हुआ है। इस दर्दनाक हादसे से पुलिस की एनकाउन्टर वाली कार्यशैली भी एकबार फिर कटघरे में खड़ी हो सकती है।
इससे भी महत्वपूर्ण बात, जो इस दुर्घटना से एक बार फिर उजागर हो जाती है, वह है– राजनीति और अपराधजगत में दोस्ती की परंपरा। विकास दुबे पर दो दशक तक कोई शिकंजा नहीं कसा गया; फिर वो सूबे में किसी भी दल की सरकार रही हो। उल्टे उसे सहूलियतें मिलती रहीं। और वह बढ़ता रहा। इस बीच अभियुक्त ने जन-समर्थन से चुनाव भी जीता, ईंट-भट्ठे, स्कूल और अन्य तमाम आर्थिक स्रोत भी विकसित कर लिये। क्या हमें एकबार फिर सोचने की ज़ुरूरत नहीं है, कि हम किन नपुंसक सी कसौटियों पर अपने बीच किसी को तवज़्जो देते हैं। शायद हमें समाज-निर्माण में अपने इस खामोश से योगदान की अहमियत मालूम नहीं। आज हम चीन को दुश्मन मानते हैं, और उसका पुरज़ोर बहिष्कार करते हैं। पर अपने भीतर के खोखलेपन से हम ऐसा समाज गढ़ते हैं जो खुद ही अपने दुश्मन पैदा करता रहा है। इसलिये विकास दूबे अकेला वह नाम नहीं है जो इस हृदयविदारक घटना के लिये जिम्मेदार है। इसमें हम सब कहीं न कहीं शामिल हैं।
वस्तुतः अपराध और राजनीति की मैत्री-परंपरा में हम अपने हित खोज लेते हैं..इस व्यवस्था के वास्तविक अपराधी हमीं हैं। अभियुक्त की माँ के बयानों का एक प्रस्तुतीकरण इस संदर्भ में काबिलेगौर है — ” उसकी एयरफ़ोर्स में नौकरी लग रही थी.. राजनीति ने उसे बर्बाद कर दिया.. अब उसे मार डालो.