सेवा ही धर्म
एक पत्रकार ने स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्धि के बारे में सुना था। स्वामी विवेकानंद से मिलने और उनसे चार बातें सीखने की उनकी तीव्र इच्छा थी। पत्रकार के दो दोस्त भी उनसे मिलने आए और बात करते हुए स्वामी विवेकानंद का जिक्र किया। तीनों ने विवेकानंद के दर्शन करने का निश्चय किया। तीनों एक साथ स्वामी जी के पास गए। विवेकानंद ने उन तीनों से पूछताछ की।
इसी बीच स्वामीजी को पता चला कि तीनों पंजाब में रह रहे हैं। उस समय पंजाब में अकाल पड़ा था। उन्होंने इस पर चर्चा की। अकाल पीड़ितों के लिए चल रहे राहत कार्यों की जानकारी ली। उसके बाद उन्होंने शैक्षिक, नैतिक और सामाजिक मुद्दों पर भी चर्चा की। काफी चर्चा के बाद तीनों चले गए।
बाहर जाते समय पत्रकार ने महाशय विवेकानंद से कहा, “स्वामीजी, हम भी आपके पास धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के इरादे से आए थे। लेकिन आपने सामान्य तौर पर ऐसे मामलों पर ही चर्चा की। हमें इससे ज्ञानवर्धक कुछ भी नहीं मिला है।” स्वामी विवेकानंद ने बहुत ही व्यंग्यात्मक जवाब दिया, “दोस्तों, जब तक इस देश में एक भी बच्चा भूख से मर रहा हो, यह देखना अधिक महत्वपूर्ण है कि धर्म पर चर्चा करने की तुलना में उसकी भूख को कैसे संतुष्ट किया जाए।” जो पेट से भरा नहीं है उसे रोटी देना उपदेश देने से कई बढ़कर है। खाली पेट दर्शनशास्त्र की शिक्षा उपयोगी नहीं है।
क्या कहती है यह कहानी?
अर्थ और बोध
यह कहानी धर्म के ज्ञानी स्वामी विवेकानंद और कुछ पत्रकार मित्र की है, जो उनसे मिलने और धर्म के प्रति ज्ञानार्जन के हेतु आश्रम आए थे। बातो-बातो में उनसे उनके पंजाब प्रांत में चल रहे अकाल की बाते होती है। बहुत देर चर्चा के बाद लौटने निकलते है, और स्वामी जी से थोड़ी नाराजगी से कहते है कि, दरअसल वे धर्म के बारे में ज्ञान बढ़ाने और कुछ सीखने आये थे लेकिन….
स्वामीजी उन्हें समझाते है कि, धर्म का उपदेश देने के बजाय इस समय भुखमरी से मरनेवाले उन बच्चों की सेवा यही हमारा धर्म होना चाहिए। उनके लिए कार्य करने की बात करते है। उनके प्रति सेवा ही मेरा श्रेष्ठ धर्म है! कहकर उन्हें भी सेवाधर्म की प्रेरणा देते है। यह इस कहानी से बोध भी है।
कहानी से सीख:-
यह कहानी यह दर्शाती है कि, मानवता ही श्रेष्ठ धर्म है। मानवता की सेवा से बढ़कर कोई भी सेवा नही है।