राजा जनक को ऋषि अष्टावक्र का सबक
हालांकि राजा जनक राजा थे, लेकिन वे शाही वैभव के आदी नहीं थे। वह लालच के प्रलोभन से हमेशा दूर रहते थे। नम्रता उनके स्वभाव में थी। इस वजह से वे अपने दोषों से छुटकारा पाने की कोशिश कर रहे थे। वह हमेशा खुद को खोजने की कोशिश कर रहे थे।
एक बार वे नदी के किनारे एकांत में बैठकर ‘सो:हम’ का जाप कर रहे थे। वे जोर-जोर से जाप के नारे लगाने लगे।
उस समय अष्टावक्र ऋषि वहाँ से गुजर रहे थे। ऋषि होने के कारण उन्होंने राजा जनक का मंत्रोच्चार सुना और उसी स्थान पर रुक गए और एक हाथ में लाठी लेकर कुछ दूर खड़े हो गए। फिर वह भी ऊँचे स्वर में कहने लगे, “मेरे हाथ में कमंडल है, और मेरे हाथ में एक छड़ी है”।
इस बारे में अष्टावक्र भी जोर-जोर से बातें करते रहे। अंत में जनक ने जप करना बंद कर दिया और पूछा, “ऋषि, आप जोर से यह क्या कह रहे हैं?” अष्टावक्र ने जनक की ओर देखा और मुस्कुराए।
राजा जनक ने चकित होकर पूछा, “महाऋषि, मैं देख सकता हूं कि, आपके पास एक छड़ी और एक कमंडल है, लेकिन यह दिखाकर आप चिल्ला क्यों रहे हैं?”
उस समय, अष्टावक्र ने जनक राजा को समझाया, “राजन, कमंडल और मेरे पास जो छड़ी है, उसे देखकर चिल्लाना मूर्खता है, जैसे की आपका सो:हम जाप, इसे जोर-जोर से कहना है।
केवल मंत्र के जाप करने से कोई फल नहीं मिलता। उस मंत्र में लीन होने या आंतरिक चेतना से जुड़े होने पर ही वह फल देता है।”
क्या कहती है यह कहानी?
-अर्थ और बोध
किसी भी ज्ञान को प्राप्त करने के बजाय उसे आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए। किसी भी चीज की प्राप्ती के लिए उसका उचित ज्ञान अर्जित करना जरूरी है। उसकी प्राप्ती के लिए तन, मन लगाना चाहिए, नकी दिखावे का ढोंग। इस कहानी पात्र एक राजा है। वह कूछ फल के हेतू सो:हम का जाप कर रहे थे। ऋषि अष्टावक्र ने यह देख उन्हें कुछ उपदेश किया। जो इस कहानी का बोध है।
कहानी से सीख:
यह कहानी यह दर्शाती है कि, सूखे सबक बेकार हैं। मनोकामना और फल प्राप्ती के लिये थोताण्ड और दिखावे के बजाय उसकी भक्ति में तन और मन से लीन हो जाए। उससे आंतरिक रूप से जुड़ने से ही हमे उसकी प्राप्ती हो सकती है।