दल-बदल की राजनीति और हम
उत्तर-प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनावों से ठीक पहले भाजपा के एक दर्जन से ज्यादा विधायक अपनी पार्टी बदल चुके हैं। दूसरी तरफ पार्टी का कहना है कि इनमें से ज्यादातर फितरती दलबदलू ही हैं। जो 2017 के चुनावों से कुछ पहले ही भाजपा में शामिल हुये थे, और उन्हें पार्टी ने टिकट भी दे दिया था। पर राजनैतिक अवसरवादिता के चलते उन्होंने एक बार फिर से पाला बदल लिया। इससे विपक्ष में खुशी की लहर दौड़ रही है। पर क्या इस बात से निश्चिंत हुआ जा सकता है कि आज महज सत्ता की खातिर दल बदल देने वाले ये नेतागण कल को भी ऐसा नहीं करेंगे!
ऐसे में जो एक अहम् सवाल उठता है कि क्या इन दलबदलू नेताओं ने भाजपा के साथ ही धोखा किया! या फिर जनता से भी! क्योंकि राजनैतिक संस्कृति और दलीय निष्ठा भी लोकतंत्र की सेहत के लिये बहुत मायने रखते हैं। राजनैतिक दल लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों की बिखरी हुई आवाजों को एक संगठित रूप में सामने लाने का काम करते हैं. इसीलिये हममें से ज्यादातर लोग अक्सर किसी राजनैतिक दल को देखकर ही वोट करते हैं, फिर उसका प्रत्याशी कोई भी हो।
यही नहीं, दल बदलने वाले नेता के विचार भी वाकई बदले हों या नहीं, हमारे विचार उसके बारे में जरूर बदल जाते हैं। क्योंकि हम किसी राजनैतिक दल में आस्था की हद तक यकीन करने लगते हैं। पर ये चतुर-सुजान नेतागण पार्टी छोड़ने के साथ ही उन तमाम नागरिकों के उस यकीन पर भी चोट पहुंचाते हैं जिसके चलते उन्होंने उन्हें वोट किया था। पर ये अवसरवादी नेता इसकी बहुत परवाह इसलिये नहीं करते कि वे पाला बदलकर जिस पार्टी में जा रहे हैं उस पर भी बहुत से लोगों की आस्था है। सो उन्हें उनका सहारा तो मिल ही जायेगा। बाकी पिछलग्गुओं का साथ तो रहेगा ही। इस तरह सत्ता-सुख की एक और नई पारी शुरू होगी। और अक्सर ऐसा ही होता भी है। हालांकि भारत में दल-बदल की प्रवृत्ति एक पुराना रोग है। पर क्या यह प्रवृत्ति देश के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिये मुफ़ीद है! क्या किसी संवैधानिक पद प्राप्त नेता का दल बदलने से जनता के विकास और उसकी भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं।
यह सवाल तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब ऐसे नेता पूरे कार्यकाल सत्ता-सुख भोगने के बाद ऐन चुनाव के वक़्त दल बदलते हैं। क्या अर्थ है इसका! इन्होंने अब तक केवल पदमोह में पार्टी नहीं बदली। और अब भी पदमोह में ही बदल रहे हैं। इसमें जनहित और उसको लेकर उनके नज़रिये में बदलाव आने जैसी बातें कहीं नहीं होतीं। क्योंकि जनता की ओर से तो वे निश्चिंत ही रहते हैं और जानते हैं कि वह सभी पार्टियों में बंटी है। पर इस तरह तो माना जाये कि लोकतंत्र में भी केवल मुखौटे ही बदल रहे हैं। कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं फलित हो रहा। पर राज-समाज में कोई बदलाव लाने की उम्मीद इस तरह कैसे की जा सकती है! साथ ही सरकार को भी दल-बदल कानून में अपेक्षित सुधार लाने की दिशा में कुछ नया सोचना चाहिये।