बचपन की यादें
नब्बे के दशक और आज के लड़कों में समय ने बहुत फ़र्क ला दिया है। और अगर भारत की बात करें तो इसमें फ़र्क का सबसे बड़ा कारक रहा सूचना-क्रांति का वह दौर, जिसने बच्चों ही नहीं प्रत्येक के जीवन में आमूल बदलाव ला दिया। उस दौर में अपना बचपना गुज़ार चुके लोग आज भी उन दिनों के बारे में सोचकर अपनी यादें ताज़ा कर सकते हैं।
यह नब्बे के दशक का ही दौर था, जबकि आज की तरह हर हाथ में मोबाइल नहीं हुआ करती थी, और न ही इंटरनेट सेवा तक सबकी पहुंच होती थी। लोगबाग दूर रहने वाले अपने दोस्तों या परिवार के लोगों से संपर्क करने के लिये बेसिक यानी लैंडलाईन फोन की मदद लेते थे, और वह भी सबके यहां नहीं लगा होता था। सो, हममें से बहुतेरे इसके लिये पड़ोस का नंबर देते थे बात करने के लिये, वो भी हिचकते हुये। हालांकि चिठ्ठी-पत्री का चलन भी ख़त्म नहीं हुआ था। और ‘प्रेमी-जोड़ों’ के लिये तो यह एक मज़बूरी ही हो गई थी। क्योंकि इसमें रंगे हाथ पकड़ जाने का ख़तरा बहुत होता था, और तब बड़ी फ़जीहत भी होती थी। लोग आज की तरह जब चाहे एकदूसरे से संपर्क नहीं कर सकते थे। ‘कंप्यूटर युग’ भी अपने शैशवावस्था, यानी शुरुआती दौर में ही था। न तो आम लोगों में उसका सामान्य ज्ञान ही था, और उसके साथ समस्यायें भी बहुत थीं।
यह नब्बे के दशक की ही बात है जब टीवी पर ‘दूरदर्शन’ के एकाध चैनल ही दिखते थे, और वो भी चौबीसों घंटे नहीं। जब टीवी के साथ ही छत पर भी एक एंटीना लगाना पड़ता था, और छत पर खड़े होकर शहर का नज़ारा देखने पर सारा शहर एंटीना से भरा हुआ सा नज़र आता था। किसी-किसी के यहां बड़ी छतरी वाला ‘डिश-एंटीना’ लगा होता था, तो वह कई चैनल का आनंद भी ले सकता था। और आसपास के बाल-गोपाल उस डिश से अपने एंटीना को भी चुपके से ‘कैच’ कराने के लिये भी तरह-तरह के उपाय आज़माया करते थे।
बच्चों के बीच कॉमिक की किताबों का चलन भी तब काफी था। फिर वो चाचा-चौधरी और साबू की हो या कि नागराज या बांकेलाल, बच्चे इन्हें पढ़ते हुये गर्मी की छुट्टी बिता देते। और कभी-कभी तो स्कूल या घर पर इन्हें अपने पाठ्यक्रम की किताबों में छुपाकर पढ़ते हुये पकड़ भी जाते, तब धुनाई भी खूब होती थी। आजकल की तरह बाल-अधिकारों को लेकर न तो इतनी जागरूकता ही थी, और न वैसा कानून। वे गलतियां करने पर अच्छी तरह पीटे जाते, फिर वो घर हो या स्कूल। हां, तब भी ‘मां’ ज़ुरूर कभी-कभार उन्हें बचाने को चंडी-रूप धर सामने आ जाया करती थी।
हालांकि बच्चों को टीवी-फिल्में वगैरह देखने की इतनी आज़ादी भी नहीं थी जैसी कि आज है, क्योंकि यह पढ़ाई-लिखाई में खासतौर पर बाधक माने जाते। फिर भी वे सप्ताह में एक दो फिल्में जो आतीं उसे देखने के लिये येन-केन जतन करके बड़ों को मना लिया करते थे। अक्सर रविवार सुबह को आने वाले टीवी सीरियल जैसे रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, मोग्ली, चाणक्य, परमवीरचक्र आदि की लोकप्रियता सर्वाधिक हुआ करती थी। और बीच में आने वाले ‘कॉमर्शियल्स’ जैसे निरमा, पारले, लाइफ़बॉय, कोलगेट या कम्प्लान के प्रचार भी सबको खूब भाते।
गांवों या दूर-दराज़ के इलाकों में तो उपरोक्त सीरियल लोग झुंडों में बैठकर देखा करते थे, क्योंकि सबके यहां टीवी न थी। गाने सुनने के लिये भी आज की तरह बहुत संसाधन न थे, और अधिकतर ‘ऑडियो-कैसेट्स’ ही चलन में थे। जिसकी रील बीच में कहीं फंस जाने पर उसमें पेन-पेंसिल डालकर घुमाना होता था। आज की तरह ‘ईयरफोन’ तो बहुत दूर की बात थी तब। हालांकि तब रेडियो भी खासे चलन में थे। और गांवों में या दूर-दराज़ के इलाकों में कुछ वरिष्ठ लोग समाचार सुनने के लिये एक निश्चित समय पर रेडियो को घेर कर बैठ जाया करते थे। उस समय बच्चों को बीच में बोलने की खास मनाही होती। केवल समाचार-वाचक की एक गंभीर सी आवाज़ ही गूंजती रहती उस दरमियान।
पर जैसा कि प्रकृति या कहें समय का शाश्वत नियम है, आज वह बदलाव आ चुका है। अब तो रेडियो क्या टीवी भी चलन से बाहर हो रही है। इंटरनेट का युग अपने शबाब पर है। पढ़ाई तक उसी से हो रही है। गूगल-गुरू के आगे सब गुरू जैसे फेल हो गये हैं। बच्चों पर हाथ उठाना भी गैरकानूनी है, फिर वो घर हो या स्कूल। बच्चा-बच्चा मोबाइल से खेल रहा है। उनसे कुछ भी छिपाना आसान नहीं। और अधिकतर तो मोबाइल और इंटरनेट के ऐसे माहिर हैं कि कोई साधारण वयस्क उनका मुकाबला न कर सके। कागजी किताबें ‘पीडीएफ’ में बदली जा रही हैं।
यानी इन तीन दशकों में वक़्त कई करवट ले चुका है। और सूचना-क्रांति के बाद से वक़्त की रफ़्तार भी बहुत तेज हो चुकी है। विज्ञान ने इस बीच बहुत तरक्की कर ली है। यह बात और है कि हर युग की कुछ खासियतों के साथ ही उसमें कुछ अनिवार्य कमियां भी छिपी होती हैं। पर उम्मीद है कि अपनी आने वाली पीढ़ियों के वास्ते हम समयानुसार वह संतुलन बनाये रखेंगे जिसकी आज दरकार है…