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अंधकार विस्मित रह जाता
दीपशिखा जब जलती है,
रजनी-पट पर कनक-नटी सी
राज नृत्य जो करती है।
भर देती है तमस-तूलिका
स्वर्णिम आभामंडल में,
जगमग हो जाता जग सारा
जिसके प्रज्ञा अंचल में,
खो जाता अज्ञान अहम् का
हम-तुम सब मिल जाते हैं,
दृष्टि-सृष्टि निर्मल हो जाती
नवचेतना निखरती है,
अंधकार विस्मित रह जाता
दीपशिखा जब जलती है।