नवरात्रि और विजयादशमी
आश्विन माह की नवरात्रि के बाद विजयादशमी का पर्व आता है। ऋतु-परिवर्तन के संधिकाल में वर्ष भर में दो नवरात्रि आती है। एक हिंदू कैलेण्डर के पहले मास चैत्र में, और दूसरी आश्विन माह के शुक्लपक्ष में। ऋतु अर्थात् मौसम में बदलाव के साथ ही हमारे भीतर भी कुछ परिवर्तन होते हैं। कदाचित् इसीलिये यह समय स्वयं में वांछित सकरात्मक परिवर्तन लाने हेतु बहुत अनुकूल माना गया है।
नवरात्रि शक्ति-आराधन का पर्व है। इन सभी शक्तियों को हम देवी मानकर उनकी आराधना करते हैं, जिनके मुखयतः नौ रूप हैं। इनकी शक्ति से ही संसार के सभी कार्य संपन्न होते हैं। और प्रसंगतः, देखें तो साहित्य में हमारे मौलिक मनोभाव भी नौ ही बताये गये हैं। वास्तव में भावनायें ही वे शक्तियां हैं जिनसे अभिभूत होक हम कोई भी प्रकट कृत्य करते हैं। स्पष्ट है कि यदि हममें शुद्ध,सम्यक अथवा सात्विक भाव-शक्तियां सक्रिय होंगी तो हमारे कर्म भी उत्कृष्ट होंगे; और इसका विपरीत भी सच है। नवरात्रि इसी साधना को लक्षित है।
सभी शक्तियां प्राकृतिक होती हैं। और आध्यात्मिक विद्वानों ने प्रकृति को तीन वर्गों में विभाजित कर देखा है। तामसिक, राजसिक और सात्विक। इन प्रकृतियों की सक्रियता-निष्क्रियता के अनुसार ही हममें विभिन्न प्रवृत्तियां, प्रेरणायें पनपती रहती हैं, जिनके प्रभाव में आकर ही हम कोई भी कर्म करते हैं। नवरात्रि के पहले तीन दिन जड़ व आधारभूत तामसिक शक्तियों को समर्पित हैं। उसके अगले तीन दिन चंचल व सक्रिय राजसिक शक्ति हेतु, और अंतिम तीन दिन शांत व प्रफुल्लित सात्विक आराधना के होते हैं। जिसमें हम क्रमशः अपने भाव,कर्म और बोध की प्रकृतियों का परिष्करण करते हैं। इन्हीं तीनों प्राकृतिक शक्तियों से हमारा पूरा जीवन ओत-प्रोत है। जिन पर विजय पाने से ही जीवन की सफलता संभव है।
आश्विन नवरात्रि के ठीक बाद विजयादशमी का दिन आता है। यह प्रतीकात्मक रूप से शक्तियों पर विजय पाने के बाद उन्हें स्वयं में प्रतिष्ठित करने का, और साथ ही इस विजय अभियान में काम आये तत्वों के पूजन का पर्व है। ताकि वे सदैव हमारे अनुकूल रहें। इसीलिये इस दिन ‘शस्त्र-पूजा’ भी की जाती है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान् राम ने रावण और उसकी विशाल राक्षसी सेना का संहार किया। वहीं, देवी दुर्गा द्वारा तमस के प्रतीक दानव महिषासुर का वध भी इसी दिन किया गया।
वास्तव में देव और राक्षसगण सब हमारे भीतर ही क्रमशः सुप्रवृत्तियों और कुप्रवृत्तियों के रूप में मौज़ूद हैं। ज़ाहिर है जीवन के संतुलित विकास हेतु हमें अपनी सुप्रवृत्तियों को विकसित, और कुप्रवृत्तियों को शमित करना ही श्रेयस्कर है। बुराइयों को दूर करने के लिये हमें उनसे इतर हटकर अच्छाइयों पर अपनी जीवन-ऊर्जा को केंद्रित करना होता है। असल में बुरी प्रकृतियों से युद्ध का मर्म है उनकी उपेक्षा के यत्न करना; और इसमें सफल होना ही वास्तविक विजय है। नवरात्रि और विजयादशमी के पर्व इसी निमित्त हैं। सो, हमें इस अवसर का पूरा सदुपयोग करना चाहिये। हार्दिक मंगलकामनायें