उभरते बॉलीवुड सितारे सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या की ‘स्टोरी’ में दिनोंदिन पेंचीदगियां बढ़ती गईं। शुरू में इसे एक सामान्य आत्महत्या माना गया, और नेपोटिज्म पर जमकर बहस हुई। फिर सुशांत के परिजनों ने उनकी पूर्व प्रेमिका रिया चक्रवर्ती पर आत्महत्या हेतु उकसाने व पैंसे ऐंठने का आरोप लगाया, और दूसरी तरफ़ रिया तथा अन्य बहुत से प्रशंसकों ने सीबीआई जांच की मांग की। इसके बाद ईडी की जांच के दौरान मामले में ‘ड्रग्स एंगल’ का खुलासा हुआ। जिसकी एनसीबी द्वारा की जा रही जांच में सुशांत की पूर्व प्रेमिका रिया चक्रवर्ती को गिरफ्तार किया गया। सारे देश में बहुचर्चित यह मसला संतुलित तरीके से हल करना अब सीबीआई के अलावा प्रवर्तन निदेशालय यानि ईडी और एनसीबी अर्थात् नॉरकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की प्रतिष्ठा का सवाल बन चुका है।
विगत चौदह जून को मुंबई के बांद्रा स्थित अपने अपार्टमेंट में सुशांत के पंखे से लटककर जान देने की घटना से हर कोई हतप्रभ रह गया था। हैरानी इस बात को लेकर भी थी, कि ऐसे लोकप्रिय और हंसते-मुस्कुराते नज़र आने वाले चेहरों के पीछे कितना दर्द छिपा हो सकता है, कि लोग अंत तक उसके वास्तविक हालात से बेखबर ही बने रहे। कहने को बॉलीवुड में आत्महत्या करने वाले अन्य सितारों– गुरूदत्त, सिल्क स्मिता, परवीन बॉबी, प्रत्यूषा बनर्जी, जीया खान, कुशल पंजाबी आदि के साथ एक नाम और जुड़ गया। पर सुशांत का केस जिस तरह आत्महत्या से शुरू होकर पैसे के खेल से होते हुये नशे के कारोबार तक पहुंचा, वह अपने आपमें अनोखा ही है। मीडिया ने भले इस घटना को कायदे से बेचा, पर इसने कई सामाजिक विडंबनाओं पर एकसाथ चोट की है। यह एक मध्यमवर्गीय घर के प्रतिभावान लड़के के शिखर तक पहुंचने, और फिर थोड़े ही समय में उसके निराशा, अवसाद व अंत की दास्तान है, जो हर किसी को लुभाती है। सिर्फ़ बॉलीवुड ही नहीं, ऐसे फ़साने हर क्षेत्र और उच्च-निम्न हर तरह के वर्ग से सुनाई देते रहते हैं। निराशा और अवसाद ही हर आत्महत्या के पीछे का मौलिक कारण होता है। विश्व में करीब आठ-दस लाख लोग प्रतिवर्ष आत्महत्या कर लेते हैं।
आत्महत्या का प्रमुख कारण अवसाद असफलता से जन्म लेता है। ये असफलतायें भौतिक जगत की भी हो सकती हैं, और मानसिक अर्थात् मानवीय संबंधों से जुड़ी भी। जैसे किसान,बेरोजगार या किसी दिवालिया हो चुके पूंजीपति की आत्महत्या एक भौतिक कारणवश होती है, जबकि प्रेम आदि वज़हों से की गई खुदकशी का कारण मानसिक धरातल पर मिलता है। अवसाद किसी असफलता या कुंठा से उपजी निरी दुःख की अवस्था नहीं होती, इसमें हताशा यानी उत्साहहीनता भी शामिल है, जो व्यक्ति को पंगु और लाचार होने का अहसास कराती है। ऐसी बेबस सी दिखने वाली अवस्था से ऊबकर कोई भी आत्महत्या के लिये प्रेरित हो सकता है। ऐसे में उसे किसी संतुलित व्यक्ति का साथ काफ़ी राहत दे सकता है। इस मनोदशा के लक्षण जैसे– एकांतप्रियता, नशे आदि की मात्रा का बढ़ जाना, चिड़चिड़ाटन आदि भी थोड़ा गौर करने पर स्पष्ट दीख जाते हैं। सो हमें अपने आसपास ऐसे लोगों पर नज़र रखनी चाहिये, और यथासंभव उन्हें उचित समय पर ज़ुरूरी मदद भी मुहैया करवानी चाहिये। शायद इस तरह जाने-अनजाने कोई आत्महत्या टाली जा सके।
असफलता या निराशा सदैव किसी आशा की ही अनुगामी होती है। इसका गहरा बोध हमें अवसाद और यहाँ तक कि आत्महत्या की ओर ले जाता है। आत्महत्या एक सामाजिक समस्या है। मनुष्य को छोड़कर कोई अन्य जीव शायद ही आत्महत्या करता हो। सार्थकता और निरर्थकता का बोध हम इंसानों ही होता है। पर विडंबना यह है कि जीवन की सार्थकता हेतु हमारे आदर्श सामान्यतः अंधे सामाजिक मानकों पर ही आधारित होते हैं। जिन पर खरा न उतर पाने की स्थिति में हमें अपनी निरर्थकता या अस्तित्वहीनता का बोध होने लगता है। हमें समझना होगा कि जीवन में स्वयं जीवन से मूल्यवान् व महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं। समाज व्यक्ति के लिये ही बना है, व्यक्ति समाज के लिये नहीं बना।
वस्तुतः, जब हम अहंकार या किसी अन्य कारणवश, जीवन का यह परम सत्य मानने से इनकार कर देते हैं– कि यहाँ न तो हम सर्वशक्तिमान हैं और न हमारी ही मर्ज़ी से सब होगा, तब हम अपनी आशाओं से बुरी तरह आसक्त हो जाते हैं, और उसके विफल रहने पर आसानी से अवसाद में जा सकते हैं। इसीलिये गीता कहती है कि हमें अपना कर्तव्य कर्म करते समय सफलता-असफलता की चिंता नहीं रखनी चाहिये।