कोरोनाकाल के संक्रमणकालीन ठहराव के बीच मोदी सरकार ने अपने वायदे के मुताबिक बहुप्रतीक्षित नई शिक्षा नीति विगत बुधवार को पेश कर दी। देखें तो इस अल्पविराम के बाद, जब सभी शिक्षण संस्थान अपना सिंहावलोकन करने और अध्ययन-अध्यापन के नये रास्ते तलाशने में मशगूल हैं, १९८६ की पुरानी शिक्षा व्यवस्था का स्थान लेने वाली यह नीति विद्यार्थियों के विकास-पथ में आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाली है।
जैसा कि कहा गया, नई शिक्षा-पद्धति बेरोजगार नहीं पैदा करेगी। बेरोजगारी से जूझ रहे देश के लिये यह अत्यंत उत्साहवर्धक बात होगी। विशेषकर तब, जब आज की वैश्विक परिस्थितियों में हम आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं। इसके लिये अब कक्षा छः से ही छात्रों में व्यावसायिक और कौशल विकास संबंधी प्रशिक्षण देने का प्रावधान होगा। जबकि प्राथमिक स्तर तक मातृभाषा में शिक्षा में मिलने से जहाँ छात्र की मौलिक अभिरुचि का संतुलित विकास संभव होगा, वहीं इससे राष्ट्रीय एकता व सामूहिकता की भावना को भी बल मिलेगा।
नई शिक्षा व्यवस्था में शोधकार्य को भी सुगम बनाया जाना भी उत्साहवर्धक है, इससे तमाम अन्यथा दमित रह जाने वाली प्रतिभाओं को ‘यथासमय’ उभरने का मौका मिलेगा। सामान्य शिक्षण की अंतिम सफलता, या कहें उसका वास्तविक उद्देश्य होता है– व्यक्ति में, ज्ञात के आधार पर अज्ञात को जानने की अभिक्षमता विकसित करना। शोधकर्ताओं के नवोन्मेष ही समाज को एक नई शक्ति और संभावना प्रदान करते हैं। खासकर आज जब हमारे कदम घरेलू आत्मनिर्भर व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, शोध और विकास के क्षेत्र में निवेश चमत्कारी परिणाम लाने में सक्षम है। आगे भी इसके लिये आवश्यक सहूलियतें जुटाना सरकार की जिम्मेदारी बनती है। नैशनल रिसर्च फाउंडेशन जैसी संस्थाओं का गठन इस लिहाज़ से एक आशाजनक कदम है।
नई शिक्षा नीति की सबसे अहम बात है– सिर्फ़ शाब्दिक अथवा कागजी और सैद्धांतिक बातों से आगे निकलकर छात्रों के व्यवहारपरक प्रशिक्षण पर जोर दिया जाना। ताकि ज्ञानार्जन के साथ ही अर्जित ज्ञान के जीवन में अनुप्रयोग की अभिक्षमता भी छात्रों में सम्यक् रूप से विकसित होती रहे। वहीं, यह भी एक उम्मीद भरी पहल है कि विद्यार्थी के आकलन में अब उसके अध्यापक के अलावा सहपाठी द्वारा किया गया मूल्यांकन भी शामिल होगा, और स्वयं उसका अपने बारे में किया गया आत्मनिरीक्षण भी। यह उसके सामाज में औरों से, और स्वयं से भी तालमेल बैठाने की कला से संबंधित है। मूलतः शिक्षा हमें जीना ही सिखाती है। इस तरह यह हमें स्वयं का, और अपने सापेक्ष बाकी संसार का बोध कराती है। सो आज के आर्थिक युग में यह लाज़िमी ही है, बल्कि अपरिहार्य है, कि हमारी शिक्षा प्रणाली रोजगारोन्मुख हो। फिर भी जीवन या उसकी अनवरत प्रगति के लिये अस्तित्वमान शिक्षा का असल मकसद यहीं तक सीमित नहीं है। जीविका के साथ-साथ जीवन का मक़सद, उस चेतना में प्रगति की संभावनाएं और उसके लिये आवश्यक व्यावहारिक कुशलतायें जानने-समझने की संवेदना जागृत करना भी शिक्षा का एक मौलिक उद्देश्य है। स्पष्टतः यह एक नैतिक प्रश्न है, जिसका हल ढूंढ़ने की ज़ुरूरत आज के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों को है।
शिक्षा वस्तुतः समाज में एक परिपक्व और प्रगतिशील सदस्य तैयार करती है। और देखें तो समाज एक वृहत् पाठशाला है, बल्कि वास्तविक और जीवंत। सामान्य पाठशालायें तो इस समाज का ही अंग हैं। गौरतलब है कि परंपरागत शिक्षा हमें सामाजिक रूप से शक्तिमान बनाती है, जानकारियों के अर्थ में। पर इस शक्ति के प्रयोग का विवेक जगाने के लिये एक व्यक्ति को जिस भीतरी परिवर्द्धन से गुजरना अपरिहार्य होता है, उसके किसी पूरक की आज की शिक्षण प्रणाली में कोई जगह नहीं दिखती। यथार्थतः, शिक्षा को न केवल बालक में मौजूद मनोग्रंथियों को तोड़ना होता है, बल्कि साथ ही उस ऊर्जा को उत्थान की दिशा भी दिखानी होती है। राष्ट्र के समृद्धशाली अतीत के परिप्रेक्ष्य में इसे देखने पर भी हमें अपार संभावनाएं नज़र आती हैं। अलबत्ता, कदाचित् बाजारवाद के असर से, आज की सामान्य शिक्षा प्रमुखतः जैसे किसी अन्य से संचालित हो सकने वाले ‘मशीनी मानव’ की दक्षता ही प्रदान करती है, व्यक्ति में स्वयं निर्णय लेने का नैतिक विवेक नहीं तराशती। हालाँकि शिक्षा का सर्वकालिक मक़सद व्यक्ति को समाज के काम आने लायक बनाना ही है, जिसमें अक्सर उस व्यक्ति की जीविका भी अंतर्निहित रहती है। पर उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में हमारी शैक्षिक प्रणाली कुछ इस ढांचे में ढल चुकी है, जिसमें व्यक्ति, अर्थात् विद्यार्थी का स्वयं का विकास उपेक्षित ही रह जाता है। कह लें, कि नई पीढ़ी की आईक्यू अर्थात् बुद्धिलब्धि बढ़ती जाती है, पर हमारी भावनात्मक बुद्धि करीब वैसी ही आदिम बनी रह जाती है। पारंपरिक शिक्षा से उस पर कोई धार नहीं पड़ती। फिर उच्च-शिक्षित दहशतगर्दों का भी पैदा होना स्वाभाविक हो जाता है। जैसा कि आज है।
सारांशतः, शिक्षा हमें यही सिखाती है– कि कैसे हम लोगों की ज़ुरूरतें पूरी कर सकते हैं। और इसमें अंतर्निहित बात ये रहती है, कि इसी तरह हम अपनी ज़ुरूरतें भी इस समाज में बेहतर ढंग से पूरी कर सकते हैं। पर कदाचित् उपभोगवादी संस्कृति के संक्रामक प्रभाव में हमारी शैक्षिक प्रणाली, आज व्यक्ति और समाज के इस सामान्य इच्छा-पूर्ति वाले विनिमय संबंधों से आगे जाकर, इसे प्रगतिशील जामा पहनाने में असफल या लापरवाह प्रतीत होती है। हमें समझना होगा कि वस्तुपरक शिक्षा यदि समाज के लिये ज़ुरूरी है, तो विषयपरक शिक्षण व्यक्ति के लिये। और समाज अंततः व्यक्तियों का ही समूह है; जिसकी उत्तरोत्तर उन्नति ही किसी भी शिक्षा नीति का अघोषित लक्ष्य होता है। सो, हमारी सार्वजनिक शिक्षा-नीतियों को यह संतुलन साधना ही होगा। कोरोनाकाल में इस पर मंथन को अभी पर्याप्त समय है..