पिछले दिनों सीबीएसई बोर्ड परीक्षा में बुलंदशहर के तुषार और लखनऊ की दिव्यांशी पूरे सौ फ़ीसद अंक पाकर छा गये। इन प्रतिभावान् छात्रों ने लोगों के दिलो-दिमाग में ख़ास जगह तो बनाई ही, अकादमिक सफलता के नये और अलंघ्य कीर्तिमान भी गढ़े। इनका किसी भी विषय में एक भी अंक नहीं कटा।
एक सुखद और रोमांचक आश्चर्य होता है। कभी सुनते थे कि इतिहास से लेकर अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत जैसे साहित्यिक विषयों में पूरे अंक लाना मुश्किल ही नहीं सैद्धांतिक रूप से ही असंभव है। आप एक पूर्ण निबंध कभी नहीं लिख सकते। पर ये मानक आज बेमानी नज़र आते हैं। छात्रों की मौलिक प्रतिभा मानो शिक्षा प्रणाली को चुनौती देती दिखती है — कि “पूछो.. क्या पूछ सकते हो!” सब रटा पड़ा है। ऐसे में सहज ही यह सवाल कचोटता है, कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था एक रटंत-प्रतियोगिता में बदलती जा रही है! आज छात्रों का नब्बे फीसदी या उससे ऊपर नंबर लाना न केवल आम बात है; बल्कि इससे नीचे वालों की अच्छे विद्यार्थियों में गिनती ही नहीं होती। सवाल है कि क्या हम इस तरह नई पीढ़ी में प्रेरणा भर रहे हैं, या एक नई हताशा! कहीं प्रतियोगी माहौल में आगे निकलने को हम जाने-अनजाने उन पर अपने अंधे मानक तो नहीं थोप रहे! हालांकि मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सकारात्मक अभिप्रेरणा ही स्वस्थ व प्रभावी होती है।
वहीं हमें यह भी देखना होगा कि परंपरागत शिक्षा प्रणाली से निकले, सितारों की तरह चमकने वाले इन टॉपर्स की चमक आगे चलकर कहाँ तक कायम रह पाती है। ये दुनियावी जीवन में भी सफल रहेंगे, इस बात की कितनी गारंटी होती है! और क्या यह महज़ एक संयोग ही है कि संसार में सफलता के नये प्रतिमान गढ़ने वाली करीब सारे विलक्षण व्यक्तियों का शैक्षिक कीर्तिमान कभी बेहतर नहीं रहा। इसकी अनगिनत मिसालें मौज़ूद हैं। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि जीवन की समग्र सफलता में पारंपरिक शिक्षा का स्थान अत्यंत गौड़ महत्व रखता है। ध्यातव्य है कि इस तथ्य को ज़ाहिर करती हुई एक आईएएस अधिकारी की पोस्ट आजकल सोशल-मीडिया पर वायरल हो रही है, जिसमें स्पष्ट होता है कि स्कूली शिक्षा में उनका प्रदर्शन कोई काबिले-तारीफ़ न था।
पर बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आते ही ‘टॉपर्स’ और ‘लूज़र्स’ का फ़र्क साफ़ झलकने लगता है। मेरिट लिस्ट में आने वालों के यहाँ ज़श्न का माहौल होता है, और असफल रहने वाले छात्र मुंह छिपाते फिरते हैं। मानो जिंदगी ने ही उन्हें नकार दिया हो। तथाकथित हितैषियों की भावभरी उम्मीदों तले जैसे परीक्षा के अंक ही छात्र का जीवनस्रोत हो गये हों। और असफलताओं के मानक भी कैसे-कैसे! झारखंड के बोकारो से ख़बर आती है कि ९५% अंक न ला पाने पर परिजनों के तानों के चलते एक छात्र ने आत्महत्या कर ली। यह तो हर साल सामने आने वाली उन तमाम मिसालों की अगली कड़ी भर है, जो पठन-पाठन के हार-जीत के रणक्षेत्र में तब्दील होने के चलते सामने आती ही रहती हैं। हकीक़त ये है कि देश में हर साल विभिन्न इम्तिहानों में फ़ेल होने वाले दस हज़ार से ज्यादा छात्र आत्महत्या की राह चले जाते हैं।
ये किसी से हमारी अहंकार भरी आशायें ही हैं जिन पर कोई सफल या असफल होता है। और चूंकि हम उसे प्रेम करते हैं, तो उसने खुद अपने अहम् को हमारी नज़रों में ही स्थापित कर लिया है। पर जब यही नज़रें उसे किसी ऐसी असफलता पर हिकारत से देखती हैं, तो वह भीतर से टूट ही जाता है। फिर ऐसी आत्महीनता में स्वाभाविक रूप से उसका विखंडित और विक्षुब्ध व्यक्तित्व आत्महत्या जैसे विकल्पों की ओर ही देखता है। वस्तुतः, अंधी सामाजिक कसौटियों के दबाव में आकर किसी व्यक्ति द्वारा मृत्यु का वरण ही आत्महत्या कहलाती है। हमें अपने समाज में ऐसे निराधार मानकों को मान देने से पहले यह सोचना होगा।
हमें यह बात कायदे से समझ लेनी चाहिये कि अकादमिक अथवा कोई भी योग्यता हमारे स्वभाव का ही विकास होती है। इसकी पारस्परिक तुलना न केवल व्यर्थ है, वरन् यह मूर्खतापूर्ण भी है। लेकिन यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हर साल हमारे हजारों नौनिहाल केवल हमारी इस सामाजिक मूढ़ता की भेंट चढ़ जाते हैं…