आज मोदीजी के अलावा अगर कोई और देश का जिम्मेदार है, तो वो हैं नेहरू जी। बात कोई हो, मुद्दा कोई हो.. देश के सियासी गलियारों में उठने वाला हर सवाल जब कहीं ठिकाना नहीं पाता, तो अंततः नेहरूजी को ही तलाशता है। व्यक्ति-पूजा चरम पर है। जैसे लोगों में अपना कोई आत्मविश्वास ही न बचा हो! ऐसे-ऐसे फंटूश भक्त पड़े हैं जो मानते हैं कि ‘भारत की खोज’ नेहरूजी ने की थी, वास्कोडिगामा ने नहीं। लगता है ज्यादा पढ़ लिये हैं। तब यही होता है।
नेहरूजी भी काफी पढ़े-लिखे नेता थे। लोग कहते हैं कि उनके पास इसका सर्टिफ़िकेट भी था। इसी का दुष्परिणाम था कि वे दीवानों की तरह अक्सर सर्व-धर्म-समभाव का राग अलापते रहते थे। कभी किसी फकीर, बाबा, स्वामी वगैरह को बहुत लिफ़्ट नहीं दी। फिर भी पता नहीं कहाँ से लेडी सहित माउंटबेटन को फांसने की ट्रिक जानते थे। पर ये सब इस बात का प्रमाण है, कि नेहरूजी बहुत शातिर खिलाड़ी थे। वो भोगी थे, मोदीजी की तरह त्यागी नहीं। भगत सिंह को नहीं बचाया। आज का ‘देशभक्त’ इस घाव को कैसे भुला दे! खुद भगत सिंह को भले ही भुला दे। लेनिन के साथ उन्हें भी दफ़न कर दे। पर जब गड़े मुर्दे उखाड़ने में पूर्ण दक्षता हासिल हो जाती है, तो यह समस्या सरल हो जाती है।
हमारी नेहरूजी के साथ चली आ रही अदावत कुछ यूँ ही नहीं, बल्कि पारंपरिक है। वे हमारे पूर्वज हैं। पूर्वजों को कोसना धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हो चला है। घर-घर की यही कहानी है। हम उन्हें किसी वृद्धाश्रम में रखकर केवल मार्गदर्शन और आशीर्वाद टाईप की चीजें प्राप्त करते रहना चाहते हैं; बस! लेकिन शिकायत लगातार बनी रहती है, कि आख़िर उन्होंने यह सब किया क्यूँ! प्रतीत होता है चाचा नेहरू भी ऐसे ही सब करते रहे। खाली-पीली फंसा गये। हमारे पूर्वजों ने हमें ज़िंदगी दी तो ठीक, पर असल सवाल तो उन झंझटों का है, जो ज़िंदगी भर ख़त्म ही नहीं होतीं। हमें लगता है कि अगर वो न होते, तो आज हम कहीं बेहतर होते। अजीब-अजीब गफलतें हैं। अब, जैसे वो न होते तो हम होते ही नहीं। हमारी सूरतें कुछ और होतीं। पर कोई यह बात मानने को तैयार ही नहीं है, कि ‘वो’ न होते तो आज हमारा भारत कुछ और भी महान होता।
पहली बात तो चीन चुप रहता, कम से कम इतना न गुर्राता। नेहरूजी ने ही चीन को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दिला दी; खुद नहीं लेकर रख पाये। आजकल के बिगड़े हालात मूलतः उसी समय का असर हैं, जब चीन ने सन् बासठ में हमें मात दी थी। प्रधानमंत्री थे नेहरूजी। उन्हें लेनी ही नहीं चाहिये थी चीन से मात वगैरह। पर क्या कहा जाये! हिंदी-चीनी भाई-भाई के नशे में जब माओ का झन्नाटेदार झापड़ लगा तो होश उड़ गए। कहते हैं कि देश के साथ हुये धोखे के उसी गम में दिल का दौरा पड़ा और चल बसे। कमजोर नहीं थे! ऐसे लोगों का सियासत में क्या काम! आज देखिये हम कितनी दिलेरी से सबकुछ होता हुआ देख रहे हैं। और अविचलित हैं। पर इसके लिये छप्पन इंची छाती होनी चाहिये।
आज मोदीजी कितना सटीक ज़वाब दे रहे हैं हर ‘आंख उठाने वाले’ को..हालाँकि कुछ लोग हैं कि जैसे समझना ही नहीं चाहते। आज देश की सीमा पर आंख उठाने की किसी में हिम्मत नहीं। दुश्मन देश की सरहद में घुसता नहीं, और देश के बाहर भी कर दिया जाता है। करिश्माई नेतृत्व और किसे कहते हैं! पाकिस्तान कायदे से जानता है इसे। हम उसे बार-बार यह बात याद भी दिलाते रहे हैं, कि वह हमें किसी भी मायने में खुद से कमतर न आंके। पर वह अपनी नापाक हरकतों से बाज़ नहीं आता। आशा है कि चीन को मिले मुंहतोड़ ज़वाब से पाकिस्तान सहित दुनिया के दूसरे मुल्क भी कुछ सबक लेंगे। हमने उनके करीब साठ मोबाइल-एप बंद कर दिये हैं। अभी तो ये आगाज़ है..