बहुत समय पहले की बात है किसी आश्रम में एक सिद्ध महात्मा रहते थे। वे अल्पभाषी थे और जब तक उनसे कोई न बोले, वे बात नहीं करते थे। आसपास के गाँव वाले उनके पास सत्संग के लिए आया करते थे और उनसे अपनी समस्याओं का समाधान माँगा करते थे। यद्यपि वे महात्मा किसी प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं देते थे किन्तु उनके सानिध्य मात्र से ही लोगों को उनकी परेशानियों के हल मिल जाता था।
एक दिन वे महात्मा वन विहार को गये। उनका एक शिष्य जो उनके साथ ही रहता था, उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। रास्ते में शिष्य ने पूछा, “गुरूजी, लोग इतने दुखी क्यों हैं? वे आपस में सामंजस्य बिठाने में विफल क्यों रहते हैं? क्या कोई उपाय नहीं है जिससे हम अपने मित्र या शत्रु की पहचान कर सकें और आने वाली पीड़ा से खुद को बचा सकें?”
महात्मा ने शांति से उसका प्रश्न सुना और बोले, “वत्स, लोगों के दुःख का कारण उनका अपना मन है। मन को मन की राह होती है।”
शिष्य कुछ न समझा किन्तु महात्मा आगे नहीं बोले।
एक अन्य दिन, वह शिष्य अपने मित्र के साथ गाँव में कुछ वस्तुएं खरीदने गया। महात्मा की कही बात कि ‘मन को मन की राह होती है’ अभी तक उसके दिमाग में घूम रही थी। चलते-चलते उसे एक छोटी लड़की दिखाई दी जो अक्सर आश्रम में अपने माता-पिता के साथ आया करती थी। उसके मित्र के मन में उस बच्ची के प्रति स्नेह की भावना थी। महात्मा की बात को सिद्ध करने की इच्छा से शिष्य ने अपने मित्र से कहा, “वो देखो, ये वही लड़की है न जो हमेशा आश्रम में आती है! कितनी बेहूदा लड़की है! कैसे भी मैले-कुचैले कपड़े पहन कर गुरूजी के पास चली आती है। मुझे तो उसका हमारे पवित्र आश्रम में आना बिलकुल भी पसंद नहीं।”
यह सुनकर उसका मित्र क्रोधित हो गया, “कैसी बातें कर रहे हो? कितनी प्यारी बच्ची है। मुझे उसे देखकर हमेशा ही अपनी छोटी बहन कि याद आती है। उसके साधारण पहनावे को मैला-कुचैला बता कर तुमने सिद्ध कर दिया कि गुरूजी के पास रहकर भी तुमने कोई ज्ञान नहीं लिया है। मैं उसे अपनी बहन समझता हूँ और अगर तुमने कभी उसके बारे में कोई अपशब्द कहा तो मुझसे बुरा कोई ना होगा।”
शिष्य मन ही मन मुस्कुराने लगा। उसके परिक्षण का एक चरण अभी बाकी था। वो धीरे से उस लड़की के पास पहुंचा, उसे और उसकी माताजी को प्रणाम करके बोला, “मैं महात्मा जी का शिष्य हूँ। मेरा एक मित्र, जो मेरे साथ ही आश्रम में रहता है बहुत बीमार है। उसे वैद्य के पास ले जाने के लिए ही मैं साधन की व्यवस्था करने निकला हूँ।”
इतना सुनते ही वह छोटी लड़की उस मित्र को पहचान गयी और रोने लगी। जब उसकी माँ ने उससे कारण पूछा तो वह चिंतित अपनी माँ से बोली कि वह व्यक्ति उसे बहुत प्रिय है और वह उन्हें अपने बड़े भाई समान समझती है। उसने उनसे आग्रह किया कि वह उसके पिताजी से कहकर गाड़ी की व्यवस्था करवा दें ताकि उसे सही समय पर वैद्य के पास ले जाया जा सके।
यह प्रसंग देखकर शिष्य को अपने गुरूजी का कम शब्दों में दिया हुआ ज्ञान समझ में आ गया। जिस प्रकार एक दूसरे को बिना जाने उसके मित्र और उस लड़की की एक दूसरे के प्रति समान भावनाएं थीं उसी प्रकार हमारी भावनाएं भी एक दूसरे का प्रतिबिम्ब होती हैं। यदि हमें किसी की बातों से या व्यवहार से दुःख पहुँचता है तो उस व्यक्ति पर क्रोधित होने की अपेक्षा हमें अपने मन के भीतर झांकना चाहिए कि क्या हम भी उसके प्रति वैसी ही भावना तो नहीं रखते।
इसीलिए कहते हैं कि ‘जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत दीखे तिन तैसी’।