ख़्वाबों से जो निकले हम खियाबां में जा पहुंचे न पूछो हमसे हमदम, किस जहाँ में जा पहुंचे
फूलों की वो रूहानी महक कलियों की वो रंगत जीते जी हम तो सनम, गुलिस्तां में जा पहुंचे
गुज़री तो पहले भी थी इन मदमस्त गलियों से मैं पर इस दफा यूँ लगा जैसे, ख़ुदिस्तान में जा पहुंचे
फूलों की क्यारियां तो है बदनाम यूँ ही इन ख़ारो से असली मुजरिम हैं वो, जो इश्क़ में खंजर लिए पहुंचे
सोचती हूँ करूं खियाबां से गुज़ारिश इस दफा यूँचल ले चल कहीं,अब तो हम तेरी पनाह में जा पहुंचे
इश्क़ ये अब मेरा वीराना न रहा ऐ मेरे हमदमजब से दिल लगाने हम तेरे मका पे जा पहुंचे
मांगती है ये “कायनात” थोड़ी चाहते रौनक तुझ से इंकार न करना तेरे दर पे, तलबगार जा पहुंचे!